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Illustration by @luciesalgado
बात कर रहा हूँ आज गांव की , जी हाँ उसी गांव की जहाँ हम स्कूल के दिनों में अपनी गर्मियों की छुट्टियां बिताने जाया करते थे
वही गांव जहा अंकल आंटी नही चाचा और चची चलता है पूरा गांव एक परिवार की तरह रहता है , वही गांव जहा पीपल की छाओं में घंटो लोग बैठे एक दूसरे का सुख दुःख बतियाते है , वही गांव जहा की सुबह हमारी अलार्म की घड़ियों से नही मुर्गे की आवाज़ और हैंडपंप की आवाज़ से होती है , वही गांव जहा सुबह की शांति मन मोह लेती है , वही गांव जहा संगमरमर की फर्श नही गेरू से पुती हुई फर्श रहती है ,
आज उसी गांव में जब मैं ७ साल बाद गया क्यों की अब मैं बड़ा जो हो गया बिजी आदमी हो गया मेरे पास टाइम ही कहा किसी से मिलने का
लोकल में तो लोगों से मिलना मुश्किल है तगो गांव कैसे जा सकता था
लेकिन मन ही मन हमेसा से अपने गांव को मिस करता रहा हूँ लेकिन सच यही है की इस भाग दौड़ भरी ज़िन्दगी में हम बस दौड़ते जाते है दौड़ते जाते है और हमारा गांव और पीछे ही रह गया , फ़िलहाल अभी कुछ टाइम पहले ही एक बार फिर से गांव जाने का सौभाग्य जाने का समय प्राप्त हुआ बस वहीँ का एक छोटा सा वृतांत प्रस्तुत कर रहा हूँ ,
दिनांक १५ अगस्त २०१५ समय सुबह ७.३०
इतने साल बाद गांव जा रहा था मैंने अपनी बाइक तैयार की क्योंकि मैं रस्ते को एन्जॉय करता हुआ जाना चाहता था , लेकिन हमारी बाइक भी मशहल्लाह ही थी , एक दिन पहले ही भोला खेर पुलिया के पास बंटी मिस्ट्री से बनवा के आये थे बाइक लेकिन साली धोखा दे दी ,
मन ही मन अफ़सोस हुआ की फालतू में ही साली को नहला धुला के तैयार किया , जब स्टार्ट करने का टाइम धोखा दे दीस
और ठाकुर साहब लगे किक पे किक मारने में , ७.३० से ८.४५ हो गया पर हम बाइक स्टार्ट न कर पाए , दिमाग में यही खयाल की इसको आग लगा दे लेकिन हम ये भी कैसे कर देते अरे भाई इस बाइक से पुराण सम्बद्ध जो ठहरा हमारा
खैर हमारी कैलिबर ११५ तो धोखा दे गयी लेकिन फिर हमारी छोटे भाईसाहब ने जबरदस्ती अपनी बाइक की चाभी थमा दी हमको और बोले भैया हमने भी कल ही सर्विस करवाई है बाइक आप जरा इसकी टेस्ट ड्राइव कर के आइये गांव से ,
हमारी सवारी निकल पड़ी एक कंधे में बैग टाँगे हुए और कुछ सामान जैसे पानी की बोतल और कुछ खाने पिने की सामान बाइक के बैग में डाला और चल दीये हम
लखनऊ से कानपुर और कानपूर फतेहपुर के लिए
भिन्नाते हुए हम निकल पड़े अपनी बाइक से शहर के ट्रैफिक को पार करते हुए निकल पड़े धुएं से भरे रास्तों पे हार्न बजाते हुए ,
हाईवे से काफी आगे आने के बाद लगभग ५० किलोमीटर बाइक चलने के बाद हम रुके एक ढाबे पे मजा ही आ गया बड़े दिन वही अल्ताफ राजा के गाने( तुम तो ठहरे परदेसी साथ ) बजता हुआ ढाबा , और एक नाबालिक लड़का जिसकी उम्र लगभग १६ साल रही होगी , आया टेबल पे कडपा मरते हुए बोला जी साहब जी आर्डर दीजिये , हमने एक स्पेशल चाय और समोसा और छोला का आर्डर दिए और चूल्हे की सौंधी खुशुबू का मजा लेते हुए चाय और समोसे का मजा लिया
फिर हम निकल पड़े अपने आगे के रास्ते पर , मैंने तय कर रक्खा था की आज सड़क का जितने भी मजा ले सकता हूँ मजा लेते हुए ही जाना है
फिर रास्ते में हर छोटी बड़ी दुकान में खाते पीते हुए , हमने अपने पेट को एक बड़ी डस्टबिन में तब्दील कर दिया ,
हम शाम के ४.३० बजे पहुंचे आख़िरकार अपने गांव ,
जहाँ मेरे दादी बाबा रहते थे उनको गुजरे हुए ज़माना हो गया था , और उनका घर भी खँडहर में तब्दील हो चुका था , उस घर के सामने ही मेरे बड़े पाप का घर था जहाँ भी मेरे लिए प्रेम की कोई कमी नही थी सब ने पलके बिछा के स्वागत किया और वहां जातें ही मैंने वही गांव के चूल्हे में चाय बनवाई और मजे से चुस्किया ले के छत्त पे बैठ के पिता रहा , और हर पल अपने बचपन की हरकते याद कर कर के मुसकुराता रहा
किसी के पूछने पर भी नही बता सकता था की क्यों मुश्कुरा रहा हूँ लेकिन बहुत ही सुखद एहसास था दोसतों अपने गांव जाना
बस कमी खाल रही थी अपने पुराने घर की जो की अब खँडहर हो गया था
मैं मिला उन चाचा और चाची से जिन्हें वक़्त से पहले ही ज़िन्दगी ने बूढा बना दिया था ,
मेरे चाचा शिवशंकर सिंह (एक पडोसी सिटी के हिसाब से अंकल ) जो की बचपन में हमें अपनी बैलगाड़ी में बहुत घुमाये थे जब की वो हमारे पता जी से लगभग १० साल छोटे थे , पर उन्हें गांव की हवा ने ही शायद बूढा बना दिया था
उनकी बेटियां जो मुझसे काफी छोटी थी उन सब के घर बस चुके थे , उनका लड़का जो मुझे काफी साल छोटा था वो बिना दसवी पास किये हुए ही कमाने को मजबूर था ये वही लड़का है जिसे हम बचपन में खूब चिढाते थे बेचारा आज मस्ती की जगह ८००० रुपये महीने में अहमदाबाद में कही नौकरी करता था \
वो शायद किसी शादी में आया था गांव में , और बताता जा रहा था भैया की आने जाने में ट्रैन में बहुत दिक्कत होती है इसलिए अब जल्दी नही आएगा वहां .
मेरे बचपन के सारे दोस्त शहरो की तरफ रुख कर चुके थे , जिनके कंधो पे कभी बैठ के मैं घण्टो घूम करता था आज वो कंधे इतने झुक गए थे की मेरे नमस्ते का जवाब भी सिर्फ मुसकुरा के ही दे सकते थे क्यों की वो तो दौड़ के गले भी नहीं लगा सकते थे
आज वो अकेले थे गांव में क्यों की ३ बेटियों की शादी हो गयी और एक लौट लड़का चला गया कमाने
गांव में भी अजब सा बदलाव था गांव के नए लड़के अब दातून नही कोलगेट मंजन मांगते है अब वे पायजामा या लूंगीं नही घर में जीन्स पेंट पहन के ही बैठा करते है मुह में राजश्री की पुड़िया और गले में नारंगी गमछा डेल दिन भर इधर उधर घूम करते है ,
ये वही लड़के थे जो बचपन में सुबह सुबह भैंस से दूध निकलने में माहिर हुआ करते थे पर अब उन्हें अपने स्मार्टफोन (चाइना मोबाइल ) में पिच्चर देखने से फुरसत ही नही रहती
सब शहर में आ के ठेला लगाने का शौक जरूर रखते है पर अपने खेतों में काम करना उन्हें रास नही आता है
जिसने भी मुझे देखा मुझे कोई पहचान नही पाया आखिर मैं भी इतना बदल चुका था चिकने गालो पे अब ढाढ़ी आ चुकी वो भी फैशन वाली
पहले जो लड़के गन्ने का रास पि के मस्त होते थे अब वो ग्रीन लेवल( अंग्रेजी शराब ) पि के मस्त है ,
एक वो जमाना था जब हम घर से नमक ले के बगीचों में कच्चे आम खाने जाते थे और आज था की जिस दिन उनकी दारु ज्यादा हो जाती घर पे कहते की आज हम बगीचे में ही रुकेंगे
अम्मा के हाथ की उस एक कप चाय ने इतनी सारी बात याद दिला दी
लेकिन फिर मैंने सोचा की गांव से दूर जरूर हूँ मैं पर गांव से जुडी यादें सहेज के रक्खे हूँ अपने पास , कभी गांव को खुद से दूर नही होने दिया
और हंसी आते है उन गांव के भटके हुए युवाओं पे जो गांव का सुख छोड़ के शराब और जुएं की लत में लग गए
हम गांव से सैकड़ो दूर होते हुए भी गांव के ज्यादा करीब है , दरअसल गांव की सैर की जरुरत हमें नही इन भटके हुए लड़को को है
दिल से दिल तक
गांव से गांव तक
अंकित सिंह सेंगर
2006 Launches
Part of the Society collection
Published on November 13, 2016
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